Wednesday 21 June 2017

असफ़ल लोगों का सफ़ल नाटक

एक बार मैंने फ़्लैट बेचने के लिए अख़बार में विज्ञापन दे दिया, बाद में उसे 4-5 बार रिपीट भी करवा दिया। एक सज्जन (लिखते समय थोड़ा शिल्प-शैली का ध्यान रखना पड़ता है वरना ‘श्रेष्ठजन’ उखड़ जाते हैं:-) जो प्रॉपर्टी का काम करते थे, मेरे पास चले आए कि हमारे होते अख़बार में विज्ञापन क्यों दे दिया ? उनका अंदाज़ ऐसा था जैसे मैंने कोई चोरी या बेईमानी कर ली हो। इसमें मुझे ज़्यादा हैरानी नहीं हुई क्योंकि ‘चोरी और सीनाज़ोरी’ या ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ के उदाहरण मैं यहां बचपन से ही देखता आया हूं। मुझे थोड़ी हैरानी इस बात पर ज़रुर हुई कि विज्ञापन मैंने अंग्रेज़ी के अख़बार में दिया था और मेरी जानकारी में वह सज्जन यह भाषा नहीं जानते लगते थे। इधर फ़ोन की घंटिया धकाधक बजने लगीं। एक महिला जो हमारे घर में काम करती थी, घंटी बजते ही किसी-न-किसी बहाने फ़ोन के पास दौड़ी चली आती। बाद में उसने बड़े अपनत्व भरे लहज़े में शिक़ायत भी की कि आपने अपने इस निर्णय में मुझे शामिल नहीं किया, मुझे नहीं बताया। ऐसी घटनाएं देखते-समझते धीरे-धीरे निराकार-साकार-भगवान, माफ़िया, सफ़लता आदि के सही मायने या रहस्य समझ में आने लगे। जिस दिन पहली बार गणेश की मूतियों के दूध पीने की अफ़वाह फैली थी, मुझे याद है कि एक आदमी हमारे घर इसकी सूचना देने आया था। उससे जब पूछा कि आपको कैसे पता चला तो उसने कहा कि कई लोगों के घर फ़ोन आए थे। हमारे यहां उस वक़्त फ़ोन नहीं था। हमें क्या मालूम था कि फ़ोन की सबसे ज़्यादा ज़रुरत ‘भगवानों’ को पड़ती है। इसके बिना बेचारे मुर्दा के मुर्दा पड़े रहते हैं। 

इन माफ़ियानुमां गठबंधनों के कई रुप देखने को मिलते हैं। कई दुकानदार पब्लिसिटी के लिए साइनबोर्ड सड़क पर रख देते हैं। दुकान खोलने के बाद मुझे यह पता चला कि जैसे ही बोर्ड हटानेवाली गाड़ी अपने दफ़्तर से चलती है, बाज़ार में सूचना आ जाती है कि अपने-अपने बोर्ड हटा लो, गाड़ी आ रही है। जब अपने मकान में कोई कुछ अवैद्य काम करवा रहा होता है तो ऐन वक़्त पर क्या होता है, आप जानते ही हैं। बड़ी हैरानी की बात है कि जब बाक़ी सब कामों के लिए इतने सुगठित, सुनियोजित माफ़िया काम करते हैं, चप्पे-चप्पे की ख़बर रखते-पहुंचाते हैं तो जब औरतों के साथ छेड़छाड़ या बलात्कार की घटनाएं होतीं हैं तब ये लोग क्यों सामने नहीं आते ? क्यों छुपकर भी कुछ नहीं करते ? क्या आपको मालूम है कि जाने-अनजाने इसमें औरतें भी शामिल होतीं हैं। इसमें प्रगतिशील और कट्टरपंथी, बंगाली और हैदराबादी,  अकेले और पारिवारिक...सभी लोग शामिल होते हैं। फिर यही लोग जंतर-मंतर और रामलीला ग्राउंड में जाकर रोना-पीटना मचा देते हैं। मैंने पिछले कुछ सालों में इंटरनेट पर कई लोगों को शराफ़त का मज़ाक़ उड़ाते देखा। इसमें सबसे मज़ेदार बात मुझे यह लगी कि यही लोग ईमानदारी के नाम पर चलाए गए सर्कसनुमां तथाकथित आंदोलनों का सबसे आगे बढ़कर समर्थन कर रहे थे।

आप ज़रा सोचिए कि अगर मुझे मकान बेचने में सफ़ल होना था तो मुझे क्या करना चाहिए था ? 

(जारी)

-संजय ग्रोवर
21-06-2017


Sunday 18 June 2017

वीभत्स स्वच्छता

कभी एफ़ एम पर, कभी टीवी पर, कभी-कभी खोलो तब भी महानता दिख ही जाती है। कोई बता रहा है कि हरा डिब्बा, नीला डिब्बा, दो डब्बे कचरे के लिए रखो वरना लोग तुम्हे ख़राब नज़र से देखेंगे, इज़्ज़त ख़राब हो जाएगी.....। कोई समझा रहा है नहाना बहुत ज़रुरी है, पीने को पानी न हो तब भी नहाना ज़रुर चाहिए, पॉज़ीटिव एनर्जी पैदा होती है, पवित्रता आती है। सबसे ज़्यादा सामाजिक कार्य आजकल टट्टी के फ़ील्ड में चल रहा है। हर कोई पाख़ाने का महत्व समझाने में लगा है, सेलेब्रिटी वगैरह बताते हैं टट्टी हमेशा इनडोर करनी चाहिए, आउटडोर करने से बदनामी होती है, इमेज ख़राब होती है। लेकिन जिसके घर में जगह नहीं है, पाख़ाना बनाने का पैसा नहीं है, वह आपके कहने से टट्टी पेट में रोक भी ले, तो ज़्यादा से ज़्यादा उसे क्या मिलेगा ? अच्छी इमेज ? और क्या ? पेट में बीमारियां लेकर वो उस इमेज का करेगा क्या ? उसे क्या दो-चार विज्ञापनों में काम मिल जाएगा ?

यह अच्छी बात है कि आप लोगों को समझा सकते हैं, लेकिन आप ग़रीबों को कुछ ज़्यादा ही समझाते हैं। क्या इसलिए कि वे समझाने के लिए ही पैदा हुए हैं ? समझाने के लिए और भी तो लोग हैं। अभी तीन दिन पहले मैंने एक पार्क में बड़े-बड़े तंबू लगे देखे, पूरे सर्कस के जैसे इंतज़ाम। वहां किसी साध्वी के प्रवचन की आवाज़ आ रही थी। दूर-दूर तक लाउडस्पीकर लगे थे। फिर एक दिन छोड़कर फिर वहां से निकला तो देखा कथा तो संपन्न हो गई थी पर सामान अभी भी पूरे पार्क में बिखरा था। कौन इसे साफ़ करेगा ? ज़ाहिर है बाबा और साध्वियां तो करेंगे नहीं, वे तो निकल गए। तो क्या उनके भक्त साफ़ करेंगे ? क्या आपको लगता है कि वे करते होंगे ? आपको मालूम ही है कि सफ़ाई आखि़रकार किसको करनी पड़ती है। 

आए दिन यहां लोग बच्चों के खेलने के लिए बनाए गए पार्कों में घास रौंदकर बाबा बुलाते हैं, वहां शादियां कराते हैं, रातोरात मंदिर बना देते हैं, मेले लगा देते हैं, कौन इन्हें परमिशन देता है ? कौन से क़ानून और नियम से यह होता है ? खुले में शौच करना इतना बुरा है तो खुले में पार्क रौंद कर लाउडस्पीकर पर चिल्लाना कैसे बेहतर है ? शौच करनेवाले अकसर ग़रीब, अनपढ़ और मजबूर लोग हैं, कथा करने और सुननेवाले अकसर संपन्न और पढ़े-लिखे लोग हैं। लेकिन इनको समझाने कोई नहीं आता, ये जो चाहते हैं करते हैं। धार्मिक हो या धर्मनिरपेक्ष, इनके मामले में कोई नहीं पड़ता।


कमज़ोर को समझाना आसान काम है, बिलकुल किसी फ़िल्म के बनावटी ऐक्शन सीन में पचास गुंडों को दीवार में गड़ढा करके उसके पार फेंक देने जैसा आसान काम, लेकिन देश के तथाकथित धार्मिक ऊंचे और पवित्र वर्ग पर उंगली उठाना मुश्क़िल काम है। यह इसलिए भी मुश्क़िल है क्योंकि यहां प्रगतिशील लोगों की जगह दहेज़बाज़ अंधविश्वासियों और कट्टरपंथियों ने हड़प रखी है।

ऐसे में स्वच्छता के नाम पर आए दिन ग़रीब लोगों को हड़काने की तथाकथित स्वच्छता को एक वीभत्स स्वच्छता ही कहा जा सकता है।

-संजय ग्रोवर
18-06-2017

Sunday 4 June 2017

बच्चे की मासूमियत और बड़ों का बचपना

‘अगर आपको भगवान के होने का सबूत चाहिए तो इस वीडियो को देखिए’
ऐसा ही कुछ फ़ेसबुक पर लगे एक वीडियो के ऊपर स्टेटस में लिखा था, नीचे वीडियो में एक छोटा बच्चा सड़क पर अपना किनारा छोड़कर डिवाइडर की तरफ़ भाग पड़ता है। गाड़ियां धीरे-धीरे चल रहीं हैं, शायद लाल बत्ती अभी-अभी हरी हुई है। बच्चा अचानक गिर पड़ता है या लेट जाता है। एक कार उसके ऊपर से आर-पार निकल जाती है। नीचे बच्चा सुरक्षित है। वीडियो बनाने या लगानेवाले के अनुसार यह भगवान के होने का सबूत है। धार्मिक लोगों के मुख से इस तरह की घटनाएं और उनपर इस तरह के उनके रिएक्शन मैंने अकसर देखे-सुने हैं, ज़रुर आपने भी सुने होंगे।

तथाकथित धार्मिकों के अनुसार तो जो भी होता है, भगवान की मर्ज़ी से होता है। तो फिर जब भगवान ने उसे बचाना ही था तो पहले उसे भगाया क्यों ? भगवान क्या बच्चे के साथ सांप-सीढ़ी खेल रहा था ? यह तथाकथित भगवान तो बच्चों का माईबाप है। कोई मां-बाप पने बच्चों के साथ इस तरह टाइमपास करते हैं क्या ?

यह बच्चा बच गया तो यह भगवान के होने का सबूत है। और जो बच्चे मर जाते हैं वो किस बात का सबूत है ? ज़ाहिर है कि वो फिर भगवान के न होने का सबूत है। और ध्यान रहे कि सड़को-फुटपाथों पर, घरों-अस्पतालों में बहुत-सारे बच्चे मरते हैं। इसका मतलब है कि न होने का सबूत बहुत बड़ा है।

आगे ज़रा कल्पना कीजिए कि कोई बच्चा या व्यक्ति किसी दुर्घटना में अपना नीचे का हिस्सा तुड़ा बैठे और ऊपर-ऊपर से बच जाए तो यह किस बात का सबूत होगा ? कि भगवान आधा है और आधा नहीं है ? आधा टूटा है, आधा साबुत है ?   

इससे ज़रा और आगे सोचते हैं-यह बच्चा या व्यक्ति आज तो बच गया इसलिए आज भगवान भी बच गया लेकिन आगे की क्या गारंटी है ? क्या आगे इसके साथ कोई दुर्घटना नहीं होगी ? क्या यह अमर हो गया ? दुर्घटना ना भी हो तो स्वाभाविक मौत तो सभी मरते हैं। फिर वो किस बात का सबूत होगा ? कि भगवान कभी-कभार छोटी-मोटी दुर्घटना में/से तो बच या बचा सकता है मगर उसके आगे उसके भी बस का कुछ नहीं है।

और अगर लोगों के मरने से ही भगवान के होने, न होने का फ़ैसला होना है तो आए दिन हज़ारों लोग मरते हैं। फिर तो समझिए कि भगवान भी एक-एक दिन में कई-कई बार मरता है। आए दिन होनेवाली लाखों घटनाओं में से एक घटना आपने उठा ली, वह भी ऐसी घटना जो सालों में एकाध बार होती है, और उसे भगवान के होने का सबूत बता दिया। बाक़ी लाखों घटनाएं-बलात्कार, चोरी, बेईमानी, भ्रष्टाचार, तकनीक का दुरुपयोग, दुर्घटनाएं, कुपोषण से होनेवाली बच्चों की मौतें.....उनके बारे में क्या ख़्याल है ? वो किसकी कारिस्तानी है ?

आप यह भी बताएं कि इतना अहंकार आपमें आया कहां से कि भगवान के होने के सबूत आप देते फिरते हैं। भगवान क्या आपसे कमज़ोर है ? वह अपने होने के सबूत ख़ुद क्यों नहीं देता ?

सबसे मज़े की बात तो यह है कि जब हम आपसे कहते हैं कि अपने पिताजी से मिलवाओ तो आप सीधा ही मिलवा देते हो लेकिन इतने बड़े (आप ही के हिसाब से) सर्वशक्तिमान, सर्वविद्यमान भगवान की बात चलती है तो आप सबूत दिखाना शुरु कर देते हो !?

अरे किसी दिन सीधे ही मिलवा दो। सारा झंझट ही ख़त्म हो जाएगा।

-संजय ग्रोवर
04-06-2017

Thursday 1 June 2017

क्या मोर को यह मालूम है !

व्यंग्य

क्या मोर को यह बात मालूम है कि वह सैक्स नहीं करता इसलिए राष्ट्रीय पक्षी है ? या वह राष्ट्रीय पक्षी है इसलिए सैक्स नहीं करता या कर सकता ? क्या पता पहले करता हो मगर बाद में राष्ट्रीय होने के चक्कर में छोड़ दिया हो !? पदों-पुरस्कारों-उपाधियों आदि के चक्कर में लोग क्या-क्या नहीं छोड़ देते ? लोग तो जल्दी-जल्दी मशहूर होने के  चक्कर में अजब-ग़ज़ब बयान देने के लिए बुद्धि तक छोड़ देते हैं। फिर मोर तो पढ़ा-लिखा भी नहीं है, इंसान भी नहीं है। कपड़े-वपड़े तो उसने पहले ही छोड़ रखे हैं, मगर सैक्स नहीं करता! क्यों नहीं करता! क्या किसी न्यायप्रेमी ने ऑर्डर निकाला है ? मोर को डर क्या है !? बाक़ी सब पशु-पक्षी तो करते हैं, पशु-पक्षी तो क्या, मैंने तो सुना है आदमी भी करता है!

लेकिन शर्मा जी ने यह पता कैसे लगाया होगा कि मोर सैक्स नहीं करता ? क्या मोर ने उन्हें बताया ? मोरों से उनका संवाद कबसे चल रहा है, बताना चाहिए, देश को फ़ायदा होगा। देश को पता चलेगा कि जिन भाषाओं के लिए हम लड़-भिड़ रहे हैं, उनके अलावा भी मर-मिटने के लिए कई नई भाषाएं पैदा हो चुकीं हैं। या फिर शर्मा जी ने दो-चार महीने पेड़ों के बीच जंगल में जाकर पता लगाया होगा जैसे डिस्कवरी चैनल या एनीमल प्लैनेट वाले कई महीने पेड़ों पर लटक कर सांप के बच्चे होने या शेर के गाय वगैरह मारने के वीडियो बना लाते हैं। शेर राष्ट्रीय पशु है मगर उसे नहीं मालूम कि किसको मारना है किसको छोड़ना है। क्या मोर को मालूम होगा कि उसे सैक्स करना है या नहीं करना ? बहरहाल, मोर सैक्स नहीं करता, इसका कोई वीडियो या अन्य कोई सबूत हो तो देश को दिखाना चाहिए, देश देखना चाहता है।

हमारे घर के पीछे एक लंबा-चौड़ा, पेड़-पौधों से भरा, दाल मिल था जहां मोर अकसर आ जाते थे। कई बार हमारी छत पर पंख भी छोड़ जाते थे। पंख सुंदर होते थे, हम रख लेते थे। लेकिन इस सबके बावज़ूद मोरों की जनसंख्या मुझे इतनी ज़्यादा कभी नहीं लगी कि यह ख़्याल भी आए कि इनके बच्चे किसी करामात से पैदा हो जाते होंगे। हां, मक्खी, मच्छर, तिलचट्टे, चींटी, आदमी आदि के बारे में यह बात कही जाए तो फिर भी समझ में आती है क्योंकि इन सब की ही जनसंख्या इतनी तेज़ी से बढ़ती है कि लगता है बढ़ने के लिए इन्हें कुछ करना ही नहीं पड़ता, बिना सोचे-समझे पड़े-पड़े बढ़ते रहते हैं।


मेरे माथे और सिर के बीच में कोई छेद नहीं था इसलिए सिर पर मोरपंख लगाने का आयडिया मुझे नहीं आया वरना बचपने में लगा भी सकता था। लेकिन कृष्ण नाम का एक ऐसा पौराणिक शख़्स सुनने में आता है जो अपने मुकुट में मोरपंख धारण करता था। यह शख़्स मोरपंख मोर से पूछकर लाता होगा इसपर विश्वास करना ज़रा मुश्क़िल है क्योंकि इस चरित्र से संबंधित प्रचलित कहानियों में बताया गया है कि पहले यह मक्खन चुराता रहा बाद में औरतों के कपड़े चुराने लगा। इस शख़्स की कहानियों में सोलह हज़ार रानियां/पत्नियां थीं। उस दिन मैं हिसाब लगाने बैठा कि सब पत्नियों से एक-एक दिन भी मिला जाए तो कितना वक़्त चाहिए ? मैंने सोलह हज़ार में तीन सौ पैंसठ का भाग दे दिया। उत्तर आया लगभग चौवालीस साल। इससे पहले पंद्रह-सोलह साल बच्चे को जवान होते-होते तक संभलने के लिए चाहिए, तो हो गए लगभग साठ साल। फिर जमुना के तट पर गोपियां अलग से आतीं थीं। 15-20 साल उनके लिए भी चाहिए। इसके अलावा दोस्तों-रिश्तेदारों को आपस में लड़वाना था, महाभारत कराना था, 18 दिन उसके लिए भी चाहिए थे। कुछ काम न करते हुए भी यह आदमी कितना कामकाजी रहा होगा। अब पता लगा है कि यह आदमी गोपियों के बीच में रोता था। हमने तो सुना है कि बांसुरी से उनका मन बहलाता था। रोता था तो फिर हो सकता है जमुना उसके आंसुओं से ही पैदा हुई हो। कृष्ण के बच्चे कितने थे इसकी जानकारी मुझे नहीं है। एक हाथ में सुदर्शन चक्र/चक्कर, दूसरे में बांसुरी, तीसरे, आंखों से रोना........धुंधलाहट में काफ़ी बैलेंस बनाना पड़ता होगा। फिर कैलेंडर में मैंने देखा कि एक पैर पर खड़े होना........करामात जैसी बात है भले इससे होता कुछ भी न हो। 

हम लोगों को ऐसे चमत्कार काफ़ी पसंद हैं जो बेवजह, बेमतलब, बेनतीजा ही होते रहते हैं। 


-संजय ग्रोवर
01-06-2017